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मंगलवार, 26 जुलाई 2016

इडि‍यट बॉक्‍स (टेलि‍वि‍जन) और कि‍सानों की आत्‍महत्‍याएं

       उपरोक्‍त शि‍र्षक में दि‍ए गए शब्‍दों में आपको कोई संबंध दि‍खाई देता हैं? आप कहेंगे बि‍लकुल नहीं! लेकि‍न इन दोनों शब्‍दों का आपस में गहरा संबंध है. यदि‍ यह कहा जाए कि‍ पहला शब्‍द ही दूसरे शब्‍द के लि‍ए काफी हद तक जि‍म्‍मेदार है तो कुछ गलत नहीं होगा. आप थोड़ा 1980 और 1990 का दशक याद कीजि‍ए और यह धॅुढने कि‍ कोशि‍श कि‍जि‍ए कि‍, वर्ष 1980 या 90 में कि‍तने कि‍सानों ने आत्‍महत्‍याऍं की थी, जवाब मि‍लेगा कुछ नहीं या फि‍र नगण्‍य कि‍सानों के आत्‍महत्‍याओं का ही होना सामने आएगा. ऐसा क्‍या था और क्‍या नही था इस दौर में जो कि‍सानों को आत्‍महत्‍याओं को प्रभावि‍त कर रहा है. मेरे वि‍चार से उस दौर में टीवी नहीं था जो, कि‍सानों की खेती को प्रभावि‍त कर रहा था.

       आज-कल हम देखते हैं कि‍ अधि‍कतर युवाओं ने नोकरी पाने की चाहत में अपने परंपरागत कि‍सानी से अपना मुँह मोड़ लि‍या है. उन्‍हें लगता है कि‍ पढ़-लि‍खकर नौकरी प्राप्‍त कर लेना ही उनका पढाई का अंति‍म उद्धेश्‍य है और यदि‍ पढ़-लि‍खकर नौकरी नहीं लगती है, तो इसमें उनका कोई दोष नहीं है. हमारे भारत में एक समय ऐसा था जब कि‍सानी को उत्‍तम माना जाता था, मध्‍यम व्‍यापार था और नौकरी करने को नि‍ष्‍कृष्‍ठ माना जाता था. लेकि‍न अंग्रेज आए और उन्‍होंने भारतीयों नौकर बनाना शुरू कि‍या और अधि‍कतर पढ़े-लि‍खे लोगों ने भी नौकरी करना उत्‍कृष्‍ठ मानना शुरू कि‍या, क्‍योंकि‍ खेती-कि‍सानी में होने वाले अनियमि‍त उत्‍पादन और अनि‍श्‍चि‍तता से नहीं जुझना पड़ता था, लेकि‍न अब दौर बदल गया है, आज-कल हम देखते हैं कि‍ अधि‍कतर पढ़े-लि‍खे डि‍ग्रीधारी लोग भी अपने आप को 'साक्षर बेरोजगार' कहलाते है और बेरोजगारी भत्ता भी पाते है. जि‍न्‍हें वह मि‍ल जाता हैं, वह अपने आपको खुशनसीब समझते हैं और जि‍न्‍हें नहीं मि‍लता वह मन कचौट कर रह जाते है और अपनी डि‍ग्री तथा शि‍क्षा को कोसते नज़र आते हैं. बच्‍चें स्‍कूली पढ़ाई तक सोचते है, उन्‍हें क्‍या बनना है, लेकि‍न वह देखते हैं कि‍ वि‍ज्ञान, कंप्‍यूटर, वाणि‍ज्‍य, इंजि‍नि‍यरी और मेडि‍कल के क्षेत्रों के लि‍ए बहुत अधि‍क स्‍पर्धा है और इन क्षेत्रों में रोजगार के अधि‍क अवसर है, वे भी इसी घुड़दौड में शामि‍ल हो जाते हैं. दसवी तक वि‍द्यार्थि‍यों को यह पता ही नहीं होता हैं कि‍ कि‍स फि‍ल्‍ड में जाने से उनका भवि‍ष्‍य उज्‍वल हो सकता है, इसलि‍ए दसवी में अस्‍सी और नब्‍बे से अधि‍क प्रति‍शत प्राप्‍त करने वाले वि‍ज्ञान की शाखा की ओर मुड़ते हैं, जो साठ से अस्‍सी प्रति‍शत प्राप्‍त करते हैं, वे वि‍ज्ञान और वाणि‍ज्‍य की शाखा की ओर मुड़ जाते हैं, और शेष चालि‍स से साठ प्रति‍शत प्राप्‍त करने वाले कला शाखाओं की तरफ मुड जाते हैं, शेष चालि‍स और उससे कम वालों की भवि‍ष्‍य की कोई योजना नहीं होती, उसमें से अधि‍कतर 'व्‍यवसाय शि‍क्षण' लेते हैं या फि‍र जो भी काम मि‍ले उसे करना शुरू कर देते हैं. आज यदि‍ आप एक सर्वेक्षण करें, जि‍समें बेरोजगार लोगों में पढे-लि‍खे लोगों का प्रति‍शत नि‍काले तो वह सर्वाधि‍क मि‍लेगा, जबकि‍ जो लोग मात्र पॉंचवी या दसवी तक जैसे-तैसे कर पढें थे, वे सभी लोग मेहतन-महदूरी या फि‍र खेती-कि‍सानी करके अपना पेट भर लेते हैं.

       जो जि‍तना अधि‍क पढ़ता है उसे रोजगार के लि‍ए और अधि‍क कश्‍मकश करनी पड़ती है, क्‍योंकि‍ वह अपनी शि‍क्षा को ध्‍यान में रखकर आरामदायक और अधि‍क से अधि‍क आमदनी वाली 'नौकरी' प्राप्‍त करना चाहता है. कुल मि‍ला कर समस्‍या उन लोगों से साथ ज्‍यादा है, जो अधि‍क पढ़ते हैं.

       प्रत्‍येक व्‍यक्‍ति‍ की बुद्धी और मनोदशा एक समान नहीं होती है. कि‍से कि‍स काम में रूची होगी इसीपर उसका भवि‍ष्‍य नि‍र्भर होता है. पड़ोसी का बेटा इंजि‍नीयरी में एडमि‍शन लेता है, इसलि‍ए मेरा बेटा भी इंजि‍नि‍यरींग ही करेंगा यह सि‍खाने वाली हमारी टीवी संस्‍कृति‍ है. ''मामा के बेटे ने इंजि‍नि‍यरी की है, इसलि‍ए मेरा बेटा भी वही करेंगा'' और ''चाचा के बेटी ने डॉक्‍टरी में दाखि‍ला लि‍या है, इसलि‍ए मेरा बेटा भी वही करेगी'' इस भावना ने हमारा सत्यानाश कर दि‍या है.

       अधि‍कतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के विद्यार्थि‍यों को रूझान वि‍ज्ञान शाखा की ओर अधि‍क होता है. यह सब करते समय वे यह भूल जाते हैं कि‍ उन्‍होंने बचपन में अपने आप को क्‍या बनने का सपना देखा था. इसके कारण वे लोग मन मार वह काम करते हैं, जि‍समें उनकी रूचि‍ कम होती हैं, ऐसे में वे काम तो करते हैं, लेकि‍न पूरे मनोयोग से नहीं करतें हैं. 'थ्री इडि‍यट' फि‍ल्‍म का एक इडि‍यट हमें यह सि‍खाता हैं कि‍ काम वह करों जि‍समें आपको रुचि‍ हो, ''लता मंगेशकर यदि‍ दूसरे के कहने पर क्रि‍केट खेलती तो, वह आज गान-कोकि‍ला'' नहीं कहलाती और सचि‍न तेंदूलकर गाना गाते रहते तो 'मास्‍टर ब्‍लास्‍टर नहीं बनते और 'क्रि‍केट के भगवान' नहीं कहलाते आदि‍, आदि‍. लेकि‍न उस फि‍ल्‍म के माध्‍यम से दि‍ए गए संदेश को हम नहीं समझ पाए और थि‍एटर से ढाई-तीन घंटों का मनोरंजन करके वापस लौट आए और जहन में सि‍र्फ बारि‍श में भि‍गी हुई साड़ी में लि‍पटी हुई करीना कपूर का बरसात वाला गाना रह गया. यही होता है मि‍डि‍या और फि‍ल्‍मों का असर, क्‍योंकि‍ हम अभी भी दूरदर्शन और फि‍ल्‍मों को केवल मनोरंजन का साधन ही समझते रह गए, उसी टीवी पर कई ज्ञानवर्धक कार्यक्रम शुरू हुए, कई वि‍ज्ञान से संबंधि‍त कार्यक्रम भी चल पड़े उनपर हमनें ध्‍यान नहीं दि‍या.

       टीवी हमारे जीवन की सबसे बड़ी बि‍मारी 'टीबी' में कब तबदील हो गई हमें पता ही नहीं चला. इन सब बातों को देखते हुए मैंने एक दोहा बनाया है:

''टीवी हमारी मॉं है, केबल हमारा बाप!
कलि‍युग का सबसे बड़ा यही तो है पाप !! ''

अर्थात, हम वही सीख रहें है जो हमारी टीवी माता हमें सींखा रही है, वही संस्‍कार हम पर हो रहे हैं, जैसे कार्यक्रमों का प्रसारण केबल और सेट टॉप बॉक्‍स के द्वारा हो रहा है, और इसी का परि‍णाम हमारे समाज मन पर भी हो रहा हैं.

एक समय था जब गांवों और शहरों में लोग एक-दूसरे के घर जाया करते थे, एक दूसरे की खैरीयत पूछते थें,  जि‍ससे सामाजि‍क संबंध और प्रगाढ होते थें और आज हम देखते हैं कि‍ पडोसी के घर में झगड़ा होता है, तो लोग खुशी मनाते है. ऐसा हो भी क्‍यों नहीं, क्‍योंकि‍ ''वोनर्स प्राइड, नेबर्स जेलसी'' अर्थात ''आपकी बढें शान और पडोसी की जले जान'' सि‍खाने वाला वि‍ज्ञापन का ''ब्रेन हैमरिंग' जो दि‍न-रात हमारे दि‍माग पर कि‍या गया हैं, वह वह अपना असर तो दि‍खाएगा ही.

आपने एक बि‍स्‍कि‍ट का वि‍ज्ञापन देखा होगा, जि‍समें मंत्री महोदय भाषण दे रहे होते हैं, तभी आइपीएल का संगीत बजते ही मंत्री महोदय भाग कर क्रि‍केट देखने चले जाते है, जानते है वह मंत्री महोदय कौन है? वे दूसरे-तीसरे कोई नहीं आपके भूतपूर्व कृषिमंत्री आदरणीन श्रीमान शरद पवारजी हैं, जि‍नको जनता ने कि‍सानों का भला करने के लि‍ए चुनकर दि‍या था और आज वे स्‍वयं क्रि‍केट क्‍लब के अध्‍यक्ष बन गए. भारत के लाखों किसान सोच में पड़ गए कि‍ हमने शरद पवारजी को बारामती से कि‍सानों का भला करने के लि‍ए चुनकर दि‍या था या, क्रि‍केट की गेंद के पीछे दौड़ने के लि‍ए. बात थोड़ी हास्‍यास्‍पद है, लेकि‍न काफी गंभीर भी है, क्‍योंकि जनता का वि‍श्‍वास प्राप्‍त करने के बाद मंत्रि‍यों की नीयत में आने वाली खोट कोई नई बात नहीं है. कि‍सान यही सोचते हैं कि‍ हमारा नेता ही क्रि‍केट असोसि‍एशन का अध्‍यक्ष हैं, तो हम भी पीछे क्‍यों रहें, हमें भी क्रि‍केट देखना ही चाहि‍ए. मैंने ग्रामीण क्षेत्रों के लाखों युवाओं को देखा हैं, जो अपनी बीस-बीस, पचास-पचास ऐकड़ की खेती को छोड़कर लगातार छ:-: घंटों तक वन-डे मैंच देखने के लि‍ए टीवी के सामने बैठे रहते हैं. यह तो हो गई वन-डे की बात. जब टेस्‍ट मैच होता है, तो तीन दि‍न तो खेत में जाना ही भुल जाइए. लोग तो यही सोचते है कि‍ उनके नेता ही जब क्रि‍केट में इतना इन्‍टरेस्‍ट लेते हैं, तो वे क्‍यों न लें. चाहे उधर बीस एकड़ की खेती की 'ऐसी की तैसी' क्‍यों न हो जाए. 

       यही वह कारण है, जि‍ससे हमारा खेती-बाड़ी जैसे वि‍षयों से ध्‍यान हट गया और आपने सुना होगा कि‍ 'सावधानी हटी और दूर्घटना घटी''. दूर्घटना यह हो गई कि‍ हमने खेती की ओर से अपना ध्‍यान कही और लगा लि‍या, कि‍सी ने अपना ध्‍यान राजनीति‍ में लगाया, तो कोई दोपहर में आने फि‍ल्‍मों के चक्‍कर में अपनी ही खेती की ऐसी की तैसी कर बैठा. खेती-कि‍सानी एक मेहनत का काम है, इसमें जि‍तनी ज्‍यादा मेहनत आप करेंगे, उतना ही फायदा कि‍सानों को होता है. लेकि‍न आधुनि‍क मैकालियन अंग्रेजी प्रभावि‍त शि‍क्षापद्धति‍ हमें सि‍खाती है कि‍, मेहनत करना तो अनपढ़-गवॉंरों का काम है, बुद्धि‍मान तो केवल नौकरी और राजनीति‍ करते है. यही सोच हमारे कि‍सानों की आत्‍महत्‍या का बहुत बड़ा कारन है. जीम में जाकर डंबल उठाने से अच्‍छा है, हल चलाओ, अपने आप मसल बन जाऐंगे, आखि‍र वहां जाकर भी तो पसीना ही बहाओगे और उसका कोई फायदा भी नहीं है.

       अगर आप कि‍सानी का थोड़ा भी ज्ञान रखते होगे तो आपको पता चलेगा कि‍ कृषि‍वि‍ज्ञान दुनि‍या का सबसे बड़ा फायदेमंद वि‍ज्ञान है, जि‍ससे जीवन में खुशहाली आती हैं. आप कि‍तना भी पढ़ लि‍ख लीजि‍ए, बड़ी-बड़ी डि‍ग्रि‍यॉं हासि‍ल कर लीजि‍ए, खाऐंगे तो अनाज ही. बि‍ना खेती के अनाज मि‍लना संभव नहीं, हवा में खेती होती नहीं, इसके लि‍ए आपको जमीन पर ही आना होगा.

       आज-कल आप देखते हैं कि‍ ग्रामीण क्षेत्रों के लोग जो खेती कि‍सानी से जुड़े है; फि‍ल्‍मों में हि‍रोइन के साथ अय्याशी करते, वि‍लन के साथ मार-पि‍ट करते हुए और बनि‍यान नि‍कालकर हि‍रोइन के साथ नाचते हि‍रो (असलि‍यत में जीरो) को देखते है और उसी ढाई-तीन घंटे के नकली हि‍रो को अपना आदर्श मानते हैं. वही ढाई-तीन घंटों का हि‍रो अपने वास्‍तवि‍क जीवन में कि‍तना 'जि‍रो' होता है, यह भी सबने अपनी ऑंखों से देखा होगा. फूटपाथ पर सोए, व्‍यक्‍ति‍ को नशे की हालत में गाड़ी के नीचे कुचल कर जाने वाला कभी हि‍रो हो सकता है? देश की सहि‍ष्‍णूता को चोंट पहुँचाने वाले कभी देश के हि‍रो हो सकते हैं ? बि‍लकुल नहीं, मगर ऐसी घटनाओं के तुरंत बाद एकाद फि‍ल्‍म को हि‍रो को महान बनाने वाली फि‍ल्‍म दिखा दो और प्रेषकों का ब्रेनवॉश कर दो हो गया. यही तो हमारे देश में हो रहा हैं.

       खैर, हमारा किसान हमारी राह देख रहा हैं, इन सभी बातों के साथ-साथ टीवी पर दि‍खाई जाने वाली शहरों की चकाचौंध करने वाली फि‍ल्‍मों के दृश्‍य कि‍सानों के मन में ग्‍लानी नि‍र्माण करते हैं. उन्‍हें भी यही लगता है क्‍यों न खेती कि‍सानी छोड़कर शहरों में जाया जाए, महात्‍मा गांधी इन सभी बाते के वि‍रोधी थें उनका कहना था कि‍ असली भारत गॉंवों में बसता है, 'गॉंवों की ओर चलो' लेकि‍न औद्योगि‍कि‍रण और वि‍देशी कंपनि‍यों की शहरों में बढौत्तरी के कारण देश के भूमीपूत्र अपनी जमीन को छोड़कर शहरों में नौकर बनने के लि‍ए मजबूर हो गए और शहरों में आकर बस गए. शहरों में आकर शहरों के भ्रष्‍टाचार और भेद-भाव वाली राजनीति‍ से प्रभावि‍त होकर अपराधी लोगों के संपर्क में आए और अपना चारि‍त्रि‍क पतन करना शुरू कर दि‍या.

       हॉलाकि‍ टीवी पर कुछ कार्यक्रम ऐसे भी है जो कि‍सानों को खेती संबंधी जानकारी देने की कोशि‍श करते हैं, लेकि‍न दि‍नभर नकारात्‍मक प्रचार के बाद खेती संबंधी सकारात्‍मक सलाह सुनने में कि‍सानों को भी कोई रूचि‍ नहीं रही.

       पहले कि‍सान खेती-बाड़ी के साथ पशुपालन कि‍या करते थें और पशुपालन से खेती में अधि‍क फायदा भी होता था. धि‍रे-धि‍रे शहरों के बड़े-बडें वाहनों को देखकर किसानों ने अपने जानवरों और पंरपरांगत वाहनों को बेचकर टैक्‍टर आदि‍ खरीदने शुरू कि‍ए, ट्रैक्‍टर से बहुत जल्‍द खेती की जा सकती हैं, लेकि‍न आपका ट्रैक्‍टर गोबर नहीं दे सकता, जो खेत की जमीन को और उपजाउॅ बनाता है. गरीब गायेां को तो आपने कसाईयों को बेचना शरू कर दिया. भारत में गाय को अंति‍म दम तक पालने का रि‍वाज़ रहा है, पहले भारत में बेटी को दहेज में गाय दी जाती थी, तांकि‍ उसके मायके में गाय से मि‍लने वाले दुध और अन्‍य पदार्थों से बच्‍चों और घर के अन्‍य लोगों का पोषण हो सकें. धीरे-धीरे यह प्रथा भी बंद हो गई. गाय को बेचा नहीं जाता था, बल्‍कि‍ उसका दान कि‍या जाता था और उसे बेचने के बजाए उसे अंति‍म दम तक पालने का रि‍वाज क्‍योंकि‍ वह अंति‍म दि‍न तक गोबर और गोमुत्र देती थी, जो खेती के लि‍ए अमृत समान था, उसे आपने कसाई को बेंचा केवल कुछ पैसों के लि‍ए, तो क्या होगा, एक दि‍न आपको भी कर्जदार हो कर्ज के बोझ से फॉसी लगानी पड़ी.

       टीवी पर दि‍खाए जाने वाले विज्ञापन जो अधि‍कतर वि‍देशी कंपनि‍यों के उत्‍पादों के होते हैं, उनका उत्‍पादन, वि‍पणन और बि‍क्री वि‍देशी कंपनि‍यॉं करती है, जि‍ससे वह करोड़ो का मुनाफा कमाती है, लेकि‍न इन वस्‍तुओं को बनाने वाला सीधा सा कि‍सान कभी भी कि‍सी कंपनी का बॉंन्‍ड इम्‍बेसेटर' नहीं बनता. जो लोग उनके द्वारा बनाए उत्‍पादों का वि‍ज्ञापन करते हैं, उन्‍हें कि‍सानों से चीढ होती हैं.

आज-कल कुछ जागरूक कि‍सान अपनी खेती में नवनवीन प्रयोग करके खेती की उर्वरकता को बढाने की दि‍शा में सकारात्मक कदम उठा रहें हैं और अपनी खेती-कि‍सानी को पून: प्रति‍ष्‍ठा प्राप्‍त करने का काम भी कर रहें हैं, सरकार भी इस दि‍शा में सकारात्‍मक करम उठा रहीं हैं. कि‍सान चैनल के माध्‍यम से कि‍सानों 24X7 खेती करने के नए-नए तरि‍के, वैज्ञानि‍क जानकारी और नई योजनाओं से परि‍चि‍ कराई जा रही हैं. इससे कि‍सानों में वैज्ञानि‍क तरि‍के से खेती करने की प्रवृत्ती में बढौत्तरी हो रही हैं, यह एक सकारात्‍मक कदम हैं. कि‍सान चैनल पर दि‍खाए जाने वाले कार्यक्रम बहुत ही नव-नवीन और वैज्ञानि‍कता से भरे होते है. कि‍सान आमतौर पर परंपरागत तरि‍के से खेती करता है, लेकि‍न वैज्ञानि‍क दृष्‍टि‍कोण अपनाकर की गई खेती नि‍श्‍चि‍त ही लाभ पहुँचा सकती हैं. रासायनि‍क खाद से खेती करने से होने वाले दुष्‍परि‍णाम, खेतों में बची फसल को जलाने से होने वाला नुकसान इत्‍यादि‍ की जानकारी कि‍सान चैनल पर दि‍खाई जाती है. जि‍ससे कि‍सानों को लाभ हो रहा है.

       कुछ उच्‍च शि‍क्षा प्राप्‍त और वि‍देशों से लौटे लोग भी खेती-कि‍सानी को वैज्ञानि‍क तरि‍के से कर कर अपना नाम देश ही नहीं बल्‍की वि‍देशों में चमका रहें हैं. यदि‍ खेती को युवा पीढि‍ वैज्ञानि‍कता से करें तो यह एक नर्इ पहल हो सकती है, साथ ही खेती में होने वाले लाभ के साथ-साथ गावों से शहरों की तरफ होने वाले पलायन को भी रोका जा सकता है.

       कुल मि‍लाकर हमें जीवनदायी कृषि‍ संस्‍कृति‍ को समझना होगा और देश के कि‍सानो को 'जय जवान' के साथ 'जय वि‍ज्ञान' का भी नारा लगाना होगा, तभी 'जय कि‍सान' का नारा सार्थक होगा.

 राहुल खटे,
हुब्‍बल्‍ली
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सोमवार, 25 जुलाई 2016

राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार में हिंदी ब्‍लॉगर की भूमि‍का, राहुल खटे, उप प्रबंधक (राजभाषा)


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ज का युग वि‍ज्ञान और तकनीक का है, जि‍समें हम पग-पग पर तकनीक से टकराते है। जो लोग इस तकनीक को अपना लेते है, वह अपने काम आसानी से कर लेते हैं और जो नहीं कर पाते या जि‍न्‍हें इसके लि‍ए दुसरों की सहायता लेनी पड़ती है, वह अपना काम जैसे-तैसे पुरा कर लेते है। जो इस झंझट में नहीं पड़ना चाहते हैं, वह समय के साथ चलने वाली स्‍पर्धा से पि‍छड़ जाते है और भवि‍ष्‍य में एक दि‍न उनके मन में भी विचार आता है कि‍ यदि‍ वह समय की मांग को समझकर तकनीक के साथ चल पड़ते तो आज वह वहॉं होते जहॉं उनके साथी खड़े हैं। इसका एक साधारण सा उदाहरण है कि‍ आजकल कंप्‍यूटर द्वारा आसानी से रेल का टि‍कट बूक कि‍या जा सकता है। रेल टि‍कट काउंटर पर लंबी लाइन में लगकर पर्ची भरने से अच्‍छा हैं, कंप्‍यूटर पर रेल वि‍भाग की ऑनलाइन साईट पर जाकर मि‍नटों में रेल का कन्‍फर्म टि‍कट प्राप्‍त कि‍या जा सकता है।

कहने का तात्‍पर्य है कि‍ तकनीक और कंप्‍यूटर ने हमारे कई काम आसान कर दि‍ए हैं। भारत की सरकार भी आज-कल डि‍जि‍टल इंडि‍या का सपना देख रही है। ऐसी स्‍थि‍ति‍ में क्‍यों न सूचना प्रौद्योगि‍की का भरपूर लाभ उठाया जाए और इसी के माध्‍यम से हमारी राजभाषा हिंदी के विकास के लक्ष्‍य को भी साधा जाए ? आज-कल कंप्‍यूटर पर हिंदी में काम करना बहुत आसान हो गया है, खासकर गुगल हिंदी इनपूट और माइक्रोसॉफ्ट इंडि‍क लैंगवेज टूल की सहायता से अंग्रेजी की-लेआउट के जरीए अंग्रेजी की ही गति‍ से हिंदी में भी कंप्‍यूटर पर आसानी से काम कि‍या जा सकता है। ऐसे में हम एक ऑनलाइन 'चौपाल' लगा कर हमारे वि‍चारों को हमारी ही भाषा में स्‍थान दे सकते हैं। गुगल का ब्‍लॉगर एक ऐसा ही र्इ-टूल है, जि‍सके जरीए हम हमारे वि‍चारों को इंद्रजाल-इंटरनेट के जरि‍ए जन-जन तक पहुँचा सकते हैं। वि‍कि‍पीडि‍या के अनुसार चिट्ठा (अंग्रेज़ी का ब्लॉग), बहुवचन चिट्ठे (अंग्रेज़ी में ब्लॉग्स) एक प्रकार के व्यक्तिगत जालपृष्ठ (वेबसाइट) होते हैं, जिन्हें दैनन्दिनी (डायरी) की तरह लिखा जाता है। हिंदी के प्रचार और प्रसार में सूचना प्रचार-प्रसार में यही चि‍ट्ठे (ब्‍लॉग) हमारे इलेक्‍ट्रॉनि‍क 'देवदूत' साबि‍त हो सकते हैं, जो कलि‍युग में नारद मुनी का काम कर सकते हैं। यदि‍ आप अपने वि‍चारों को पूरे वि‍श्‍व में एक साथ पहुँचाना चाहते हैं, तो आप अपने पसंदीदा वि‍षय पर ब्‍लॉग बनाकर अपनी बातों को पूरे वि‍श्‍व में कही भी पहुँचा सकते हैं और उसे रोज अद्यतन भी कर सकते हैं।

आज कल हम देखते हैं कंप्‍यूटर पर कई ब्‍लॉग हैं, जो हिंदी में हैं और नव-नवीन वि‍षयों पर अपने ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं। इसमें हिंदी भाषा, ज्ञान-वि‍ज्ञान, तकनीकि‍-प्रौद्योगि‍की, कथा, कहानि‍यॉं, शि‍क्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, बाल जगत और अन्‍य वि‍षयों के साथ-साथ इति‍हास, भूगोल और भौति‍क वि‍ज्ञान जैसे कई वि‍षयों का समावेश हैं। वि‍शेष: अनुनाद सिंह जी ने इस क्षेत्र में भगीरथ प्रयास कि‍या है। कंप्यूटर पर ऐसे कई वि‍षयों पर आज जानकारी उपलब्‍ध हो गई जि‍न वि‍षयों की पुस्‍तकें प्राय: दुर्लभ समझी जाती है। प्राचीन ग्रंथों के पीडीएफ फाइलों का ब्‍लॉगों के माध्‍यम से आसानी से डाउनलोड कि‍या जा सकता है। इससे अध्‍ययन और अनुसंधान दोनों में सहायता हो रही है। खासकर ऐसी पुस्‍तकें जि‍नकी प्रति‍यां आज कि‍सी लाइब्ररी में भी मि‍लना मुश्‍कि‍ल हैं ऐसे कई वि‍षयों की पुस्‍तकों का संकलन आसानी से उपलब्ध हो जाता है। साथ ही ब्‍लॉग बनाने वाले व्‍यक्‍ति‍ के विचार और दर्शन से भी परि‍चि‍त हो सकते हैं। हिंदी में लि‍खी गई बहुत सी पुस्‍तकें आज भी आम जन तक नहीं पहुँच पाई हैं, जि‍न्‍हें ब्‍लॉग पर दी गई लिंक के माध्‍यम से सरलता से डाउनलोड कि‍या जा सकता है, सोशल मीडि‍या पर शेयर कि‍या जा सकता है और अपने पाठकों को इसकी लिंक भी भेजी जा सकती हैं। वि‍कि‍पीडि‍या के अनुसार हिन्दी का पहला चिट्ठा 'नौ दो ग्यारह' माना जाता है, जिसे आलोक कुमार ने पोस्ट किया था। ब्लॉग के लिये चिट्ठा शब्द भी उन्हीं ने प्रदिपादित किया था जो कि अब इण्टरनेट पर इसके लिये प्रचलित हो चुका है। चिट्ठा बनाने के कई तरीके होते हैं, जिनमें सबसे सरल तरीका है, किसी अंतर्जाल पर किसी चिट्ठा वेबसाइट जैसे ब्लॉगस्पॉट या लाइवजर्नल या वर्डप्रेस आदि जैसे स्थलों में से किसी एक पर खाता खोल कर लिखना शुरू करना। एक अन्य प्रकार की चिट्ठेकारी सूक्ष्म चिट्ठाकारी कहलाती है। इसमें अति लघु आकार के पोस्ट्स होते हैं।आज के संगणक जगत में चिट्ठों का भारी चलन चल पड़ा है। कई प्रसिद्ध मशहूर हस्तियों के चिट्ठा लोग बड़े चाव से पढ़ते हैं और उन पर अपने विचार भी भेजते हैं। चिट्ठों पर लोग अपने पसंद के विषयों पर लिखते हैं और कई चिट्ठे विश्व भर में मशहूर होते हैं जिनका हवाला कई नीति-निर्धारण मुद्दों में किया जाता है। चिट्ठा का आरंभ १९९२ में लांच की गई पहली जालस्थल के साथ ही हो गया था। आगे चलकर १९९० के दशक के अंतिम वर्षो में जाकर चिट्ठाकारी ने जोर पकड़ा। आरंभिक चिट्ठा संगणक जगत संबंधी मूलभूत जानकारी के थे। लेकिन बाद में कई विषयों के चिट्ठा सामने आने लगे। वर्तमान समय में लेखन का हल्का सा भी शौक रखने वाला व्यक्ति अपना एक चिट्ठा बना सकता है, चूंकि यह निःशुल्क होता है और अपना लिखा पूरे विश्व के सामने तक पहुंचा सकता है। (स्रोत:वि‍कि‍पीडिया)

चिट्ठों पर राजनीतिक विचार, उत्पादों के विज्ञापन, शोधपत्र और शिक्षा का आदान-प्रदान भी किया जाता है। कई लोग चिट्ठों पर अपनी शिकायतें भी दर्ज कर के दूसरों को भेजते हैं। इन शिकायतों में दबी-छुपी भाषा से लेकर बेहद कर्कश भाषा तक प्रयोग की जाती है। वर्ष २००४ में चिट्ठा शब्द को मेरियम-वेबस्टर में आधिकारिक तौर पर सम्मिलित किया गया था। कई लोग अब चिट्ठों के माध्यम से ही एक दूसरे से संपर्क में रहने लग गए हैं। इस प्रकार एक तरह से चिट्ठाकारी या चिट्ठाकारी अब विश्व के साथ-साथ निजी संपर्क में रहने का माध्यम भी बन गया है। कई कंपनियां आपके चिट्ठों की सेवाओं को अत्यंत सरल बनाने के लिए कई सुविधाएं देने लग गई हैं। (स्रोत:वि‍कि‍पीडिया)

हिंदी के प्रचार को इन ब्‍लॉग ने पर लगा दि‍ए हैं। खासकर ऐसी पुस्‍तकें जि‍नको प्रकाशि‍त करने में समस्‍या आती है या फि‍र जो पुस्‍तकें प्रकाशि‍त होने पर भी पाठकों तक नहीं पहुँच पाती हैं, ऐसी पुस्‍तकों की सामग्री को आसानी से पाठकों तक मात्र एक क्‍लि‍क करने पर ही पहुँचाया जा सकता है, जि‍सपर पाठक बैठे-बैंठे ही अपनी प्रति‍क्रि‍या भी दे सकते हैं। ऐसे कई ब्‍लॉग हैं, जि‍नका यहॉं जि‍क्र करना आवश्‍यक हैं, जैसे हिंदू महासागर, राजभाषा हिंदी, प्रति‍भास, वि‍ज्ञानवि‍श्‍व, शब्‍दों का सफर, ज्ञानवाणी, गणि‍त और वि‍ज्ञान, सौर, इंडि‍या वाटर पोर्टल, भारत वि‍द्या, वैज्ञानि‍क भारत, वि‍चार वाटीका, श्‍यामस्‍मृति‍, वि‍जानाति‍-वि‍जानाति‍-वि‍ज्ञान आदि‍ वि‍शेष हैं। कि‍सी ने कहा भी है, कि‍ 'आज का ब्‍लॉग कल की पुस्‍तक है'। अर्थात कागज- कलम लेकर अपने वि‍चारों को लि‍खने के बजाए यदि‍ आप उसे सीधे कंप्‍यूटर पर टाइप कर पाते है तो वह आपके विचारों की इलेक्‍टॉनि‍क पांडुलि‍पि‍ बन जाती है। अनुनाद सिंह जी का 'प्रति‍भास' ब्‍लॉ्ग मुझे बहुत अच्‍छा लगा। इनके द्वारा बनाया गया भारत का वैज्ञानि‍क चिंतन, नवाचार दर्पण, अनागत वि‍द्या, कालजयी, भारत का इति‍हास, हिंदी वि‍श्‍वकोश, प्रति‍बिंब, अक्षरग्राम, रचनाकार, हिंदी वि‍कि‍पि‍डि‍या ब्‍लॉग, भारत गौरव, भारत का वैज्ञानि‍क तथा नवाचार दर्पण ने हिंदी को मंनोरंजकता से ज्ञानरंजकता की ओर मोड़ दि‍या है। टेढ़ी दुनिया पर रवि रतलामी की तिर्यक, तकनीकी रेखाएँ खींचने वालीके 'छींटे और बौछारें' ब्‍लॉग ने तकनीकि‍ को भाषा के साथ जोड़ने अदभूत प्रयास कि‍या है। भारतीय संस्‍कृति‍ ब्‍लॉग ने भारतीय संस्‍कृती की ध्‍वजा को वि‍श्‍व मे फहराने का काम कि‍या है। भारतीय संस्‍कृति‍ के सुनहरे पहलुओं का वि‍श्‍व के समक्ष प्रस्‍तुत करने का यह एक सफल प्रयास माना जा सकता हैं।

हिंखोज, आइना हिंदी ब्‍लॉग, देबाशीष कृत 'नुक्ताचीनी' के जरीए राजनीति, सामाजिक स्थितियाँ, तकनीकी जानकारी जैसे विभिन्न मुद्दों को छूने वाले लेखों को पढा जा सकता है। डॉ. जाकि‍र अली रजनीश जी ने अपनी वैज्ञानि‍क सोच को 'वि‍ज्ञानवि‍श्‍व' के माध्‍यम से व्‍यक्‍त कि‍या है, जो वि‍ज्ञान में रूचि‍ रखने वाले पाठकों के लि‍ए एक अनोखा तौहफा साबीत हुआ है।

इससे कठीण और क्‍लि‍ष्‍ट समझे जाने वाले वि‍षयों की सरल हिंदी में जानकारी उपलब्‍ध हो गई है। इसके अलावा वि‍ज्ञानवि‍श्‍व ब्‍लॉग ने वि‍ज्ञान की नवि‍नतम जानकारी को सरल हिंदी में उपलब्‍ध कराने का महत्‍वपूर्ण कार्य कि‍या है, जि‍ससे वि‍ज्ञान के जटीलतम सिद्धांतों को समझने के सहायता हो रही है, साथ ही इससे एक वैज्ञानि‍क सोच वि‍कसि‍त हो रही है, जि‍से भवि‍ष्‍य में होने वाली वैज्ञानि‍क क्रांति‍ की पूर्वसूचना ही कहा जा सकता है। डा श्याम गुप्त का ब्‍लॉग श्‍यामस्‍मृति‍ देश के पौराणि‍क गाथाओं का भौगोलि‍क और ऐति‍हासि‍क संदर्भ खोजने में मील का पत्‍थर साबि‍त हुआ है। पुराणों में वर्णि‍त घटनाओं के भौगोलि‍क संदर्भ खोजने में यह ब्‍लॉग गुरू का ही काम करता है। खासकर पुराणों की जि‍न घटनाओं को वि‍ज्ञानवादी काल्‍पनि‍क मानते हैं, उन्‍हें ऐति‍हासि‍कता और भौगोलि‍कता के नक्‍शें पर स्‍थापि‍त करने का यह एक अनुपम सफल प्रयास कहा जा सकता है।

रवीन्द्र प्रभात ने अपनी 'हिन्दी ब्लॉगिंग का इतिहास' पुस्‍तक में बताया हैं कि‍ आवश्यकता, उपयोगिता, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय दुनिया से सैकण्डों में अपनी बात के जरिए जुड़ने वालों की बढ़ती संख्या को देखते हुये आज ब्लॉगिंग जैसे द्रतगामी संचार माध्यम को पॉचवा स्तम्भ माना जाने लगा है। कोई इसे वैकल्पिक मीडिया तो कोई न्यू मीडिया की संज्ञा से नवाजने लगा है । हालांकि यह ब्लॉग आलोचना की एक महत्वपूर्ण पुस्तक है, जिसमें हिन्दी ब्लॉगिंग के दस वर्षों के इतिहास को सहेजा गया हैं तथा कालक्रम को विशेषताओं के साथ उल्लिखित किया गया है। इस पुस्तक में ई-एजुकेशन, -पत्रकारिता, मल्टीमीडिया, इनस्क्रिप्ट आधारित मानक हिंदी टंकण, यूज़र जेनरेटेड कन्टेन्ट. शिक्षा-केंद्रित सोशल नेटवर्किंग, एजुकेशनल गेमिंग आदि की भी चर्चा हुई है। हिन्दी में ब्लॉग इतिहास लेखन से संबन्धित यह पहली पुस्तक है, जिसमें हिन्दी ब्लॉग लेखन में महिलाओं की स्थति की समीक्षा है तो हिन्दी भाषा और साहित्य में ब्लागिंग की स्थिति निर्धारण पर विचारोत्तेजक टीका भी। वर्षवार विस्तृत समीक्षा के अंतर्गत विभिन्न ब्लागों के विषय वस्तु और उनकी गुणवत्ता के आकलन को भी इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया है।(स्रोत: वि‍कि‍पीडि‍या) महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी वि‍श्‍ववि‍द्यालय के हिंदी समय ब्‍लॉग के माध्‍यम से हिंदी की महत्‍वपूर्ण जानकारी प्राप्‍त होती है, इसमें हिंदी के उपन्यास, कहानी, कविता, व्यंग्य, नाटक, निबंध, आलोचना, बाल साहित्य, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत, सिनेमा इन परंपरागत साहित्‍यि‍क वि‍षयों के साथ-साथ अनुवाद, कोश वि‍ज्ञान, समग्र-संचयन, रचनाकारों, लेखकों, खोज, अनुसंधान संबंधी नवीनमत जानकारी प्राप्‍त होती है, इससे अध्‍ययन के साथ-साथ अनुसंधान को भी दि‍शा मि‍ल रही है। वैदि‍क वि‍ज्ञान जि‍से सामान्‍य व्‍यक्‍ति‍ मात्र कल्‍पना की उडान मानता है, इन ब्‍लाग के माध्‍यम से इस वि‍षय पर शोध करने वालों को एक नई उम्‍मीद की कि‍रण दि‍खाई देने लगी है। दिव्य नर्मदा इस ब्‍लॉग ने हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु का निर्माण किया है। वि‍धि‍ संहि‍ता ब्‍लॉग समसामायि‍क घटनाओं एवं वि‍धि‍क ज्ञान पर आधारि‍त आलेखों का प्रस्‍तुतीकरण करता है। गणि‍तांजलि‍ ब्‍लॉग की गणि‍त की जानकारी देता है। अंकुर गुप्ता का हिंदी ब्‍लॉग, कंप्‍यूटर और तकनीक से जुड़ी नई प्रवि‍ष्‍ठि‍यां प्रस्‍तुत करता है। वि‍चार संचार मंच वि‍ज्ञान के संचार की दि‍शा में कार्य कर रहा है। प्रतीक जोशी जी का 'संगणक विज्ञान हिन्दी में जानकारी' यह ब्‍लॉक उन लोगो के लिए है जिसे हिन्दी में कम्प्युटर के बारे में जानने की जरूरत है। ब्‍लॉगर एक कम्प्युटर अभियांत्रीकी स्नातक पदवी के विद्यार्थी हैं और उन्‍होने इस ब्‍लॉग के माध्‍यम से कंप्‍यूटर के बारे में उत्कृष्ट जानकारी देने की पूरी कोशिश की है। डॉ वि‍वेक मोहन अग्रवालजी का 'प्राणि विज्ञान हिंदी' यह ब्लॉग हिंदी भाषी छात्र एवं छात्राओं को उनकी मातृभाषा में प्राणि शास्त्र विषय के प्रमाणिक नोट्स मुहैया कराने हेतु बनाया गया है। मुख्यत: बिलासपुर विश्वविद्यायलय के छात्र एवं छात्रा इससे लाभान्वित हो रहे हैं। ।


नि‍श्‍चि‍त ही राजभाषा हिंदी के प्रचार-प्रसार को हिंदी ब्‍लॉगर एक मील का पत्‍थर साबि‍त हुआ है।