राहुल
खटे,
उप
प्रबंधक (राजभाषा)
स्टेट
बैंक ऑफ मैसूर,
हुब्बल्ली
(कर्नाटक)
मोबाइल
नं.
09483081656
इ-मेल:
rahulkhate@gmail.com
आज
के वैज्ञानिक युग में सभी
डार्विन के विकासवाद से
परिचित हैं। डार्विन ने
अपने विकासवादी विचारधारा
से यह सिद्ध करने की कोशिश
की है कि विकास की बहुत बड़ी
यात्रा को तय करके ही आज हम
वैज्ञानिक या कंप्यूटर के
युग में पहुँचे हैं। विकासवाद
के सभी लक्षण आधुनिक मनुष्य
में दिखाई देते हैं।
इस
अवधारणा के कारण ही सभी मानव
अपने पूर्वजों को बंदर मानने
के लिए मजबूर हो गये हैं,
लेकिन
यह सिद्धांत क्या पूरी तरह
से सही सिद्ध हो पाया है? क्या
इसे सभी विचारधाराओंने
स्वीकार किया है?
खासकर
हमारी वैदिक और पौराणिक
विचारधार में। उत्तर है-
नहीं।
खासकर धार्मिक विचारधारा
को यह सिद्धांत एक चुनौती
देता है। क्योंकि हमारी
भारतीय विचारधारा,
जो
अपने आप में एक वैज्ञानिक
विचारधारा है,
को
यह विकासवाद का सिद्धांत
चुनौती देता है। विचारों के
इस वैषम्य के कारण न तो विकासवाद
को पूरी तरह से मान्यता मिली
है और न ही धार्मिक विश्वास
को हम सिद्ध कर पाये हैं।
धार्मिक मान्यता पर प्रश्न
खड़ा करने के पक्ष में कुछ लोग
दिखाई देते हैं। उनमें से
कुछ लोग 84
लाख
योनियों के बाद मनुष्य
जीवन/जन्म
प्राप्ति होने की मान्यता
को पूरी तरह से अस्वीकार कर
देते हैं। उनसे एक प्रश्न
करना चाहिए कि यह 84
लाख
योनियां कौनसी हैं,
जरा
गिनकर तो बताए। जो लोग यह
मानते है कि 84
लाख
योनियों के बाद मनुष्य का
जन्म होता है उन्हें भी इस
बात का पता नहीं होता कि 84
लाख
योनियों में कौनसी-कौनसी
योनियों का समावेश है। यहां
पर जो 'योनियां'
शब्द
आया है-
वह
पूर्णत:
वैज्ञानिक
है। जैसा कि सभी को पता हैं
सभी प्राणियों का जन्म मादा
के जीस अंग से होता है उसे हम
आमतौर पर 'योनी'
कहते
हैं। इसका मतलब 84
प्रकार
की योनियों से है और प्रत्येक
जीव/प्राणी
की योनी अलग-अलग
होती है। इसका मतलब यह है कि
84
प्रकार
के जीव-जंतु-प्राणियो-प्रजातियों
में जीवन व्यतीत करने बाद
हमें मनुष्य जीवन प्राप्त
हुआ है,
यह
विचार विकासवाद के सिद्धांत
को पूर्णत:
सिद्ध
करता है।
84
लाख
योनियों के बाद मनुष्य का
जन्म प्राप्त हुआ है या नहीं
या समझने के लिए सबसे पहले
हमें यह जानना अथवा यह गिनना
आवश्यक है कि वह 84
लाख
योनियां आखिर है कौनसी,
जिनके
बाद मनुष्य योनी प्राप्त
होनी की बात कही गर्इ है। 84
लाख
योनियों में 21
लाख
जारज (जरायुज),
21 लाख
अंडज,
21 लाख
स्वेदज और 21
लाख
उद्भीज योनियां हैं।
जो
लोग यह नहीं मानते कि 84
लाख
योनियों में उपरोक्त चार
प्रकार के जीवों/प्रतातियों
का समावेश है,
वे
स्वाभाविक ही इस सिद्धांत
का विरोध ही करेंगे लेकिन
यदि हम चारों प्रकार की
योनियों (प्रजातियों)
को
एक सूत्र के साथ जोड़ कर देखें
तो एक विकासवादी कड़ी बनेगी
जो दूसरा-तिसरा
कुछ न होकर डार्विन के विकासवाद
के सिद्धांत का ही रूप होगा।
दरअसल
डार्विन का विकासवाद 84
लाख
योनियों के सिद्धांत की ही
पुष्टी करता है। यदि विकासवादी
पूर्नजन्म और पूनर्जन्म
के सिद्धांत को मान ले तो
उन्हें 84
लाख
योनियों के बाद मनुष्य योनी
प्राप्त होने की बात अपने
आप ही सिद्ध होती है।
गर्भविज्ञान
के अनुसार गर्भविकास का क्रम
देखने से पता चलता है कि
मनुष्य जीव सबसे पहले एक
बिंदूरूप होता है,
जैसे
कि समुद्र के एककोशीय जीव।
वही एक कोशीय जीव बाद में
बहुकोशीय जीवों मे परिवर्तित
होते है अर्थात उनका विकास
होता हैं। स्त्री के गर्भावस्था
का अध्ययन किया जाए तो जंतुरूप
जीव ही स्वेदज,
जरायुज,अंडज,
और
उद्भीज जावों मे परीवर्तीत
होकर मनुष्य शरीर धारण करता
है। इसमें स्पष्ट रूप से
डार्विन का विकासवाद दिखाई
देता है अर्थात 84
लाख
योनियों के सिद्धांत को
स्वयं डार्विन का विकासवाद
स्वयं ही सिद्ध कर रहा है।
सामान्यत:
9 महिने
और9
दिनों
के विकास के बाद जन्म प्राप्त
करने वाला बालक उन सभी शरीर
के आकारों को ग्रहण करता है
जो इस सृष्टी में पाये जाते
है। सांतवे माह में तो उसकी
छोटीसी पुँछ भी होती है,
जो
यह सिद्ध करती है कि,
वह
जीव(भूण)
कभी
न कभी पुँछ रखने वाले बंदरों
के जीवों से विकास होकर गुजर
रहा हैं।
अब
बात करते हैं जन्म के बाद की
अवस्थाओं की जन्म के बाद
मानव का बच्चा किसी पृष्ठवंशीय
जीव की तरह अपने पीठ के बल पड़ा
रहता है,
बाद
में छाती के बल सोता है,
बाद
में वह अपनी गर्दन वैसे ही उपर
उठाने लगता है जैसे कि सरीसृप
जीव और बाद की अवस्था में वह
अपनी छाती के बल पर रेंगना
शुरू करता है। बाद में वह
घुंटनों के बल चलता है जैसे
कि अन्य जीव और बाद में विकास
की यात्रा करते हुए उठने की
कोशिश करता है,
गिरता
है,
और
उठता है,
और
लडंखड़ाते हुए चलना शुरू करता
है जैसे अन्य जीव और धीरे-धीरे
कदम बढाता है और बाद में दोनों
पैरों पर संतुलन बनाते हुए
चलना प्रारंभ करता है। बाद
में तेज़ दौडता है और उसके बाद
मैराथौन की दौड़ में सम्मिलित
होता है। इन सभी क्रियाओं
में स्पष्ट रूप से विकासवाद
की छाया दिखाई देती है। यदि
मनुष्य प्राणी का अन्य जावों
की प्रजातियों से संबंध नहीं
होता तो वह जन्म से सीधे की
दौड़ना शुरू करता है लेकिन
ऐसा नहीं होता सभी क्रियाऐं
क्रमिक विकास के बाद दिखाई
देती हैं। इन सभी क्रियाओं
में उसके पूर्वजन्म के संस्कार
दिखाई देते हैं। भय,
आक्रामकता,
चिल्लाना,
अपने
नाखुनों से खरोचना आदि
क्रियाएं जानवरों की है,
जो
वह मनुष्य को जन्म से प्राप्त
करता है।
समस्या
केवल पूर्वजन्मों के संस्कारों
को न मानने के कारण आती है।
यदि विज्ञानवादी इस बात को
मान लें और इस बात को सिद्ध
कर दिया जाए कि आपको जो जन्म
मिला है वह केवल आपके पूर्वजन्म
के कर्म संस्कारों और पात्रता
के कारण मिला है तो यह समस्या
का समाधान हो सकता है। किसी
व्यक्ति को पुँछा जाए कि
उसका जन्म किसी विशेष घर
में क्यों हुआ तो उसका कोई
उत्तर नहीं दे पाएगा। मगर
क्या ऐसा हो सकता है कि इतनी
बड़ी क्रिया संयोगमात्र से
हुई है। जी नहीं !
विज्ञान
यह कहता है कि प्रत्येक
क्रिया की एक प्रतिक्रिया
होती है और कारण भी। यदि हम
दर्शनशास्त्र को आधार माने
तो हमारे पूर्वजन्मों के
संस्कार ही कैरी-फॉरवर्ड
होते हैं। विज्ञानवादी यदि
पूर्वजन्म और पूनर्जन्म
के सिद्धांत को मान ले तो यह
प्रश्न मिट जाता है।
इसमें
यह तर्क दिया जाता है कि
यदि हमारा पूर्वजन्म रहा
भी होगा तो वह हमें यह याद
क्यों नहीं रहता है। इसके
लिए हमें स्मरणशास्त्र
को समझना होगा। हमारे दिमाग
में स्मरण की कई सारी फाइल
एकत्रीत होती रहती है,
जो
आवश्यक नहीं है वह फाइलें
अपने आप ही मिटती चली जाती
हैं। यदि आपको यह पुँछा जाए
कि पिछले सप्ताह के सोमवार
को सुबह 11
बजे
आपने कौनसे रंग के कपडे़ पहने
थें,
तो
आप आसानी से नहीं बता पाऐंगें।
आपको उसे याद करने के लिए
आपकी स्मरणशक्ति पर जोर
देना पड़ेगा। आपको यदि रचनाबद्ध
तरिके से यह बताया गया कि
आप कल कहा थें,
परसों
क्या पहना था,
कहां
गये थें तो हो सकता है कि आपको
धीरे-धीरे
सब याद आता जाएगा। इसी को आधार
माना जाए तो हो सकता हैं कि
किसी विशेष क्रिया के
द्वारा आप अपने पूर्वजन्म
को भी याद कर लें और आपको अपने
पूर्वजन्म की सभी बाते याद
आ जाए।
हमने
यदि डार्विन के विकासवाद
को भारतीय दर्शनशास्त्र की
विचारधारा के साथ जोड़कर
देखा तो हम पाऐंगे कि दोनों
एक दुसरे के पूरक है लेकिन
विज्ञानवादी अध्यात्मवाद
को नहीं मानते और अध्यात्मवादी
विज्ञानवादियों को मुर्ख
समझते है,
इसलिए
यह एक यक्षप्रश्न बना हुआ
है। इसका एक ही उपाय है,
विज्ञानवादी
अध्यात्मवादी बनें और
अध्यात्मवादी विज्ञान
को समझने की कोशिश करें। दर
असल अध्यात्मवादी सभी प्रकार
के ज्ञान-विज्ञान
की शाखाओं को एकसाथ समझने की
कोशिश करता है। दुनिया को
केवल भौतिकशास्त्र की
नज़रिए से देखने से प्रश्नों
के उत्तर नहीं मिल पाऐंगे।
भारतीय दर्शनशास्त्र में
भौतिकशास्त्र,
रसासनशास्त्र,
वनस्पतिशास्त्र,
कृषिशास्त्र,
पर्यावरण
विज्ञान,
जीवशास्त्र,
भूगोल,
इतिहास
और अन्य विषयों को एकसाथ
पढने की कोशिश की गई हैं,
इसलिए
वह परिपूर्ण शास्त्र है,
ऐकांगी
नहीं है।
यदि
एक अंधेरे कमरे में एक हाथी
को बांध कर रख दिया और उसमे
ऐसे पॉंच लोगों को भेजा
जिन्होंने अपने जीवन में
कभी हाथी को देखा ही नहीं था।
तो जिस व्यक्ति के हाथ
में हाथी की पूँछ आ गई वह कहेगा
कि हाथी तो रस्सी की तरह
होता है,
दूसरा
व्यक्ति जिसके हाथ हाथी
के पेट को लगा वह कहेगा हाथी
तो किसी बड़े ढोल की तरह होता
है,
जिस
व्यक्ति ने हाथी के पैरों
को स्पर्श किया वह कहेगा कि
हाथी तो किसी पेड़ के तने के
जैसा होता है और जिसने हाथी
की सुंड को स्पर्श किया वह
कहेगा कि हाथी तो किसी पाइप
की तरह होता है। इस प्रकार
भिन्न-
भिन्न
विचार बनेगें और वह आपकी बात
तब-तक
नहीं मानेंगे जब तक आप उसे
हाथी को उजाले में लाकर नहीं
दिखाते है। पूरा हाथी अपनी
ऑंखों से देखने के बाद ही
उन्हें विश्वास होगा कि,
हाथी
कितना बड़ा और विशाल होता
है। ऐसी ही स्थिति हमारे
ज्ञान-विज्ञान
की शाखाओं की हो गई है। जो
व्यक्ति केवल भौतिकशास्त्र
में बी.एस
करता है,
उसे
पर्यावरण विज्ञान की जानकारी
नहीं होती है। जो केवल गणित
को पढता है वह जीवशास्त्र
के सिद्धांत को भुल जाता है
और जो केवल जीवशास्त्र में
शोध करता है,
वह
अपने भूगोल से अनभिज्ञ रह
जाता है। प्राचीन अध्ययन
पद्धति में यह सभी विषय एक
साथ पढाए जाते थें इसलिए
वैदिक विचारधारा में पर्यावरण
अध्ययन पर विशेष ध्यान
दिया जाता था। जिससे ज्ञान
सर्वागीण होता था। आज विभिन्न
विषय शालेय स्तर पर तो पढाए
जाते हैं लेकिन जैसे-जैसे
महाविद्यालयीन और विश्वविद्यालयीन
पढ़ाई की ओर बढते हैं,
हम
इन सभी विषयों के तुलनात्मक
और समग्र अध्ययन पर ध्यान
नहीं देते हैं। इसलिए हमारी
मान्यताऐं अधुरी रह जाती
है।
खैर,
हमारी
मूल बात पर आते हैं जिसमे
हमने यह माना था,
कि
मनुष्य का जन्म 84
लाख
योनियों के बाद होता है,
जो
पुर्णत:
वैज्ञानिक
धारणा है। मेरे विचार से
मनुष्य भी सभी जीव-जंतुओं,
प्राणी-प्रजातियों
के जीवन का सफर तय करने के बाद
मनुष्य बना है यही विचार
सर्वथा विज्ञानसम्मत है।
लेख का आधार: 'विश्वप्रपंच', अनुवादक: आचार्य रामचंद्र शुक्ल, प्रसिद्ध जीवशास्त्री हैकल के 'दी रिडल ऑफ युनिवर्स का हिंदी अनुवाद।
(यह
लेख राहुल खटे द्वारा लिखा
गया मौलिक लेख है)