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शनिवार, 30 अप्रैल 2016

सही क्‍या? 84 लाख योनि‍यां या डार्वि‍न का वि‍कासवाद

राहुल खटे,
उप प्रबंधक (राजभाषा)
स्‍टेट बैंक ऑफ मैसूर,
हुब्‍बल्‍ली (कर्नाटक)
मोबाइल नं. 09483081656
-मेल: rahulkhate@gmail.com

आज के वैज्ञानि‍क युग में सभी डार्वि‍न के वि‍कासवाद से परि‍चि‍त हैं। डार्वि‍न ने अपने वि‍कासवादी वि‍चारधारा से यह सि‍द्ध करने की कोशि‍श की है कि‍ वि‍कास की बहुत बड़ी यात्रा को तय करके ही आज हम वैज्ञानि‍क या कंप्‍यूटर के युग में पहुँचे हैं। वि‍कासवाद के सभी लक्षण आधुनि‍क मनुष्‍य में दिखाई देते हैं।

इस अवधारणा के कारण ही सभी मानव अपने पूर्वजों को बंदर मानने के लि‍ए मजबूर हो गये हैं, लेकि‍न यह सिद्धांत क्‍या पूरी तरह से सही सि‍द्ध हो पाया है? क्‍या इसे सभी वि‍चारधाराओंने स्‍वीकार कि‍या है? खासकर हमारी वैदि‍क और पौराणि‍क वि‍चारधार में। उत्तर है- नहीं। खासकर धार्मि‍क वि‍चारधारा को यह सि‍द्धांत एक चुनौती देता है। क्‍योंकि हमारी भारतीय वि‍चारधारा, जो अपने आप में एक वैज्ञानि‍क वि‍चारधारा है, को यह वि‍कासवाद का सि‍द्धांत चुनौती देता है। वि‍चारों के इस वैषम्‍य के कारण न तो वि‍कासवाद को पूरी तरह से मान्‍यता मि‍ली है और न ही धार्मि‍क वि‍श्‍वास को हम सि‍द्ध कर पाये हैं। धार्मि‍क मान्‍यता पर प्रश्‍न खड़ा करने के पक्ष में कुछ लोग दि‍खाई देते हैं। उनमें से कुछ लोग 84 लाख योनि‍यों के बाद मनुष्‍य जीवन/जन्म प्राप्‍ति‍ होने की मान्‍यता को पूरी तरह से अस्‍वीकार कर देते हैं। उनसे एक प्रश्‍न करना चाहि‍ए कि‍ यह 84 लाख योनि‍यां कौनसी हैं, जरा गि‍नकर तो बताए। जो लोग यह मानते है कि‍ 84 लाख योनि‍यों के बाद मनुष्‍य का जन्म होता है उन्‍हें भी इस बात का पता नहीं होता कि‍ 84 लाख योनि‍यों में कौनसी-कौनसी योनि‍यों का समावेश है। यहां पर जो 'योनि‍यां' शब्‍द आया है- वह पूर्णत: वैज्ञानिक है। जैसा कि‍ सभी को पता हैं सभी प्राणि‍यों का जन्‍म मादा के जीस अंग से होता है उसे हम आमतौर पर 'योनी' कहते हैं। इसका मतलब 84 प्रकार की योनि‍यों से है और प्रत्‍येक जीव/प्राणी की योनी अलग-अलग होती है। इसका मतलब यह है कि‍ 84 प्रकार के जीव-जंतु-प्राणि‍यो-प्रजाति‍यों में जीवन व्‍यतीत करने बाद हमें मनुष्‍य जीवन प्राप्‍त हुआ है, यह वि‍चार वि‍कासवाद के सि‍द्धांत को पूर्णत: सि‍द्ध करता है।

84 लाख योनि‍यों के बाद मनुष्‍य का जन्म प्राप्‍त हुआ है या नहीं या समझने के लि‍ए सबसे पहले हमें यह जानना अथवा यह गि‍नना आवश्‍यक है कि‍ वह 84 लाख योनि‍यां आखि‍र है कौनसी, जि‍नके बाद मनुष्‍य योनी प्राप्‍त होनी की बात कही गर्इ है। 84 लाख योनि‍यों में 21 लाख जारज (जरायुज), 21 लाख अंडज, 21 लाख स्‍वेदज और 21 लाख उद्भीज योनि‍यां हैं।

जो लोग यह नहीं मानते कि‍ 84 लाख योनि‍यों में उपरोक्त चार प्रकार के जीवों/प्रताति‍यों का समावेश है, वे स्‍वाभावि‍क ही इस सि‍द्धांत का वि‍रोध ही करेंगे लेकिन यदि‍ हम चारों प्रकार की योनि‍यों (प्रजाति‍यों) को एक सूत्र के साथ जोड़ कर देखें तो एक वि‍कासवादी कड़ी बनेगी जो दूसरा-ति‍सरा कुछ न होकर डार्वि‍न के वि‍कासवाद के सि‍द्धांत का ही रूप होगा।

दरअसल डार्वि‍न का वि‍कासवाद 84 लाख योनि‍यों के सि‍द्धांत की ही पुष्‍टी करता है। यदि‍ वि‍कासवादी पूर्नजन्‍म और पूनर्जन्‍म के सि‍द्धांत को मान ले तो उन्‍हें 84 लाख योनि‍यों के बाद मनुष्‍य योनी प्राप्‍त होने की बात अपने आप ही सि‍द्ध होती है।

गर्भवि‍ज्ञान के अनुसार गर्भवि‍कास का क्रम देखने से पता चलता है कि‍ मनुष्‍य जीव सबसे पहले एक बिंदूरूप होता है, जैसे कि‍ समुद्र के एककोशीय जीव। वही एक कोशीय जीव बाद में बहुकोशीय जीवों मे परि‍वर्ति‍त होते है अर्थात उनका वि‍कास होता हैं। स्त्री के गर्भावस्‍था का अध्‍ययन कि‍या जाए तो जंतुरूप जीव ही स्‍वेदज, जरायुज,अंडज, और उद्भीज जावों मे परीवर्तीत होकर मनुष्‍य शरीर धारण करता है। इसमें स्‍पष्‍ट रूप से डार्वि‍न का वि‍कासवाद दि‍खाई देता है अर्थात 84 लाख योनि‍यों के सि‍द्धांत को स्‍वयं डार्वि‍न का वि‍कासवाद स्‍वयं ही सि‍द्ध कर रहा है। सामान्‍यत: 9 महि‍ने और9 दि‍नों के वि‍कास के बाद जन्‍म प्राप्‍त करने वाला बालक उन सभी शरीर के आकारों को ग्रहण करता है जो इस सृष्‍टी में पाये जाते है। सांतवे माह में तो उसकी छोटीसी पुँछ भी होती है, जो यह सि‍द्ध करती है कि‍, वह जीव(भूण) कभी न कभी पुँछ रखने वाले बंदरों के जीवों से वि‍कास होकर गुजर रहा हैं।

अब बात करते हैं जन्म के बाद की अवस्‍थाओं की जन्‍म के बाद मानव का बच्‍चा कि‍सी पृष्ठवंशीय जीव की तरह अपने पीठ के बल पड़ा रहता है, बाद में छाती के बल सोता है, बाद में वह अपनी गर्दन वैसे ही उपर उठाने लगता है जैसे कि‍ सरीसृप जीव और बाद की अवस्‍था में वह अपनी छाती के बल पर रेंगना शुरू करता है। बाद में वह घुंटनों के बल चलता है जैसे कि‍ अन्‍य जीव और बाद में वि‍कास की यात्रा करते हुए उठने की कोशि‍श करता है, गि‍रता है, और उठता है, और लडंखड़ाते हुए चलना शुरू करता है जैसे अन्‍य जीव और धीरे-धीरे कदम बढाता है और बाद में दोनों पैरों पर संतुलन बनाते हुए चलना प्रारंभ करता है। बाद में तेज़ दौडता है और उसके बाद मैराथौन की दौड़ में सम्‍मि‍लि‍त होता है। इन सभी क्रि‍याओं में स्‍पष्‍ट रूप से वि‍कासवाद की छाया दि‍खाई देती है। यदि‍ मनुष्‍य प्राणी का अन्‍य जावों की प्रजाति‍यों से संबंध नहीं होता तो वह जन्‍म से सीधे की दौड़ना शुरू करता है लेकि‍न ऐसा नहीं होता सभी क्रि‍याऐं क्रमि‍क विकास के बाद दि‍खाई देती हैं। इन सभी क्रि‍याओं में उसके पूर्वजन्‍म के संस्‍कार दि‍खाई देते हैं। भय, आक्रामकता, चि‍ल्‍लाना, अपने नाखुनों से खरोचना आदि‍ क्रि‍याएं जानवरों की है, जो वह मनुष्‍य को जन्‍म से प्राप्‍त करता है।

समस्‍या केवल पूर्वजन्‍मों के संस्‍कारों को न मानने के कारण आती है। यदि‍ विज्ञानवादी इस बात को मान लें और इस बात को सि‍द्ध कर दि‍या जाए कि‍ आपको जो जन्‍म मि‍ला है वह केवल आपके पूर्वजन्‍म के कर्म संस्‍कारों और पात्रता के कारण मि‍ला है तो यह समस्‍या का समाधान हो सकता है। कि‍सी व्‍यक्‍ति‍ को पुँछा जाए कि‍ उसका जन्‍म कि‍सी वि‍शेष घर में क्‍यों हुआ तो उसका कोई उत्तर नहीं दे पाएगा। मगर क्‍या ऐसा हो सकता है कि‍ इतनी बड़ी क्रि‍या संयोगमात्र से हुई है। जी नहीं !

वि‍ज्ञान यह कहता है कि‍ प्रत्‍येक क्रि‍या की एक प्रति‍क्रि‍या होती है और कारण भी। यदि‍ हम दर्शनशास्‍त्र को आधार माने तो हमारे पूर्वजन्‍मों के संस्‍कार ही कैरी-फॉरवर्ड होते हैं। वि‍ज्ञानवादी यदि‍ पूर्वजन्‍म और पूनर्जन्‍म के सि‍द्धांत को मान ले तो यह प्रश्‍न मि‍ट जाता है।

इसमें यह तर्क दि‍या जाता है कि‍ यदि‍ हमारा पूर्वजन्‍म रहा भी होगा तो वह हमें यह याद क्‍यों नहीं रहता है। इसके लि‍ए हमें स्‍मरणशास्‍त्र को समझना होगा। हमारे दि‍माग में स्‍मरण की कई सारी फाइल एकत्रीत होती रहती है, जो आवश्‍यक नहीं है वह फाइलें अपने आप ही मि‍टती चली जाती हैं। यदि‍ आपको यह पुँछा जाए कि‍ पि‍छले सप्‍ताह के सोमवार को सुबह 11 बजे आपने कौनसे रंग के कपडे़ पहने थें, तो आप आसानी से नहीं बता पाऐंगें। आपको उसे याद करने के लि‍ए आपकी स्‍मरणशक्ति‍ पर जोर देना पड़ेगा। आपको यदि‍ रचनाबद्ध तरि‍के से यह बताया गया कि‍ आप कल कहा थें, परसों क्या पहना था, कहां गये थें तो हो सकता है कि‍ आपको धीरे-धीरे सब याद आता जाएगा। इसी को आधार माना जाए तो हो सकता हैं कि‍ कि‍सी वि‍शेष क्रि‍या के द्वारा आप अपने पूर्वजन्‍म को भी याद कर लें और आपको अपने पूर्वजन्‍म की सभी बाते याद आ जाए।

हमने यदि‍ डार्वि‍न के वि‍कासवाद को भारतीय दर्शनशास्‍त्र की वि‍चारधारा के साथ जोड़कर देखा तो हम पाऐंगे कि‍ दोनों एक दुसरे के पूरक है लेकि‍न वि‍ज्ञानवादी अध्‍यात्‍मवाद को नहीं मानते और अध्‍यात्‍मवादी वि‍ज्ञानवादि‍यों को मुर्ख समझते है, इसलि‍ए यह एक यक्षप्रश्‍न बना हुआ है। इसका एक ही उपाय है, वि‍ज्ञानवादी अध्‍यात्‍मवादी बनें और अध्‍यात्‍मवादी वि‍ज्ञान को समझने की कोशिश करें। दर असल अध्‍यात्‍मवादी सभी प्रकार के ज्ञान-वि‍ज्ञान की शाखाओं को एकसाथ समझने की कोशि‍श करता है। दुनि‍या को केवल भौति‍कशास्‍त्र की नज़रि‍ए से देखने से प्रश्‍नों के उत्‍तर नहीं मि‍ल पाऐंगे। भारतीय दर्शनशास्‍त्र में भौति‍कशास्‍त्र, रसासनशास्‍त्र, वनस्‍पति‍शास्‍त्र, कृषि‍शास्‍त्र, पर्यावरण वि‍ज्ञान, जीवशास्‍त्र, भूगोल, इति‍हास और अन्‍य वि‍षयों को एकसाथ पढने की कोशि‍श की गई हैं, इसलि‍ए वह परि‍पूर्ण शास्‍त्र है, ऐकांगी नहीं है।

यदि‍ एक अंधेरे कमरे में एक हाथी को बांध कर रख दि‍या और उसमे ऐसे पॉंच लोगों को भेजा जि‍न्‍होंने अपने जीवन में कभी हाथी को देखा ही नहीं था। तो जि‍स व्‍यक्‍ति‍ के हाथ में हाथी की पूँछ आ गई वह कहेगा कि‍ हाथी तो रस्‍सी की तरह होता है, दूसरा व्‍यक्‍ति‍ जि‍सके हाथ हाथी के पेट को लगा वह कहेगा हाथी तो कि‍सी बड़े ढोल की तरह होता है, जि‍स व्‍यक्‍ति‍ ने हाथी के पैरों को स्पर्श कि‍या वह कहेगा कि‍ हाथी तो कि‍सी पेड़ के तने के जैसा होता है और जि‍सने हाथी की सुंड को स्‍पर्श कि‍या वह कहेगा कि‍ हाथी तो कि‍सी पाइप की तरह होता है। इस प्रकार भि‍न्‍न- भि‍न्‍न वि‍चार बनेगें और वह आपकी बात तब-तक नहीं मानेंगे जब तक आप उसे हाथी को उजाले में लाकर नहीं दि‍खाते है। पूरा हाथी अपनी ऑंखों से देखने के बाद ही उन्‍हें वि‍श्‍वास होगा कि‍, हाथी कि‍तना बड़ा और वि‍शाल होता है। ऐसी ही स्‍थि‍ति‍ हमारे ज्ञान-वि‍ज्ञान की शाखाओं की हो गई है। जो व्‍यक्‍ति‍ केवल भौति‍कशास्‍त्र में बी.एस करता है, उसे पर्यावरण वि‍ज्ञान की जानकारी नहीं होती है। जो केवल गणि‍त को पढता है वह जीवशास्‍त्र के सि‍द्धांत को भुल जाता है और जो केवल जीवशास्‍त्र में शोध करता है, वह अपने भूगोल से अनभि‍ज्ञ रह जाता है। प्राचीन अध्‍ययन पद्धति‍ में यह सभी वि‍षय एक साथ पढाए जाते थें इसलि‍ए वैदि‍क वि‍चारधारा में पर्यावरण अध्‍ययन पर वि‍शेष ध्‍यान दि‍या जाता था। जि‍ससे ज्ञान सर्वागीण होता था। आज वि‍भि‍न्‍न वि‍षय शालेय स्‍तर पर तो पढाए जाते हैं लेकि‍न जैसे-जैसे महावि‍द्यालयीन और वि‍श्‍ववि‍द्यालयीन पढ़ाई की ओर बढते हैं, हम इन सभी वि‍षयों के तुलनात्‍मक और समग्र अध्‍ययन पर ध्‍यान नहीं देते हैं। इसलि‍ए हमारी मान्‍यताऐं अधुरी रह जाती है।

खैर, हमारी मूल बात पर आते हैं जि‍समे हमने यह माना था, कि‍ मनुष्‍य का जन्‍म 84 लाख योनि‍यों के बाद होता है, जो पुर्णत: वैज्ञानि‍क धारणा है। मेरे वि‍चार से मनुष्‍य भी सभी जीव-जंतुओं, प्राणी-प्रजाति‍यों के जीवन का सफर तय करने के बाद मनुष्‍य बना है यही वि‍चार सर्वथा वि‍ज्ञानसम्‍मत है।
लेख का आधार: 'वि‍श्‍वप्रपंच', अनुवादक: आचार्य रामचंद्र शुक्‍ल, प्रसिद्ध जीवशास्‍त्री हैकल के 'दी रि‍डल ऑफ युनि‍वर्स का हिंदी अनुवाद।
(यह लेख राहुल खटे द्वारा लि‍खा गया मौलि‍क लेख है)

दशावतारों की वैज्ञानि‍कता

राहुल खटे,
उप प्रबंधक (राजभाषा),
स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, हुबली (कर्नाटक)
मोबाइल नं. (09483081656)

हमारे 18 पुराणों में दशावतारों की कथा आती है। लेकिन पढे-लिखे लोग इसे काल्पनिक मानते हैं। इसमें उनकी कोई गलती नहीं हैं, क्योंकि‍ जो लोग इन दस अवतारों महिमा मंडन करते है, तब यह नहीं बताते कि‍ यह दस अवतार कब हुए और इसका वैज्ञानिक आधार क्या हैं।

आइए, इसे वैज्ञानिक दृष्टि से समझने का प्रयास करते है। इसके लिए हमें पुराणों के साथ-साथ आधुनिक जीव विज्ञान और भूगोल का भी सहारा लेना होगा।

विष्णु पुराण एवं अन्य पुराणों के अनुसार सबसे पहला अवतार है मत्‍स्‍य अवतार। अब देखते है कि‍ आधुनिक जीवविज्ञान और भूगोल का अध्ययन क्या कहता है इसके बारे में। भूगोल/जीवविज्ञान के अनुसार पृथ्वी सूर्य से आज से लाखों वर्षों पहले अलग हुई। प्रारंभ में यह पृथ्वी सूर्य के समान आग का एक गोला ही थी। धिरे-धिरे यह ठंडी होनी शुरू हुई और आज से तकरि‍बन 2 अरब वर्षों पहले पृथ्वी पर जल की उत्पत्ति‍ हुई। वैज्ञानिक दृष्टि से आग से ही पानी की उत्पन्न होता है। पृथ्वी पर पानी बसे बना जीवन जीने वाले जीव ही उत्पन्न हुए होगे अर्थात मछली आदि जीव। सबसे पहला अवतार जो है वह है - मत्‍स्‍य अवतार अर्थात सबसे पहले मछली आदी जीवों की उत्पत्ति‍ की बात पूर्णत: वैज्ञानिक धरातल पर सही बैठती है अर्थात इसमें कोई भी अवैज्ञानिकता नहीं है।

दूसरा अवतार है- कच्छ अवतार। जैसे-जैसे पृथ्वी पर पानी की मात्रा कम होने लगी और उसमें से जमीन भी अलग होने लगी तो ऐसे जीवों की उत्पत्ति‍ हुई होगी जो जल और जमीन दोनों पर जीवन जीने की क्षमता वाले जीव/प्राणी थे। कछुआ एक ऐसा प्राणी है जो उभयचर हैं। उभयचर अर्थात वे जीव जो जल और जमीन दोनों पर जीवन जीने की क्षमता रखते हों। कछुआ जल और जमीन दोनों पर जीवन जीने की क्षमता रखते हैं। इसलिए दूसरा अवतार कच्छ अवतार पूरी तरह से वैज्ञानिक धरातल पर सही साबित होती है।

तीसरा अवतार है- वराह अवतार। जैसे-जैसे पानी और जमीन अलग होने लगे वैसे जीवसृष्‍टी का भी विकास होने लगा और विशेष क्षमता के जीव जो केवल जमीन पर जीवन जी सकते थे, उनकी उत्पत्ति होने लगी। जैसे की वराह अर्थात- सूअर प्रजाति‍ के प्राणी। सूअर पूर्ण रूप से जमीन पर जीवन व्यतीत कर सकते हैं। इसलिए यह अवतार भी वैज्ञानिक दृष्टि से सही है और आगे जीवों के विकास की यात्रा भी जारी रही।

चौथा अवतार है- नृसिंह भगवान का । जो पशु(सिंह) और इन्‍सान का मिश्रण है। भूगोल के अनुसार एक समय ऐसा था जब केवल मानव-सदृश प्राणी और प्राणी-सदृश मानव हुआ करते थे। नृसिंह भी इसी श्रेणी के अवतार थे जो मानव के विकास यात्रा का महत्वपूर्ण पडाव थे। जब प्राणियों से मानव बनने की विकास यात्रा का सफर तय कर रहें थे। तो यह अवतार भी बिलकुल सही है और वैज्ञानिक धरातल पर पूरी तरह से सही बैठता है।
पाँचवाँ अवतार हैं- बटु वामन का। इन्‍सान का जब जन्म होता है तो वह बच्चा होता है बाद में धीरे-धीरे बढ़ते हुए छोटा बालक बनता है। उसका कद छोटा होता है अर्थात वह बडों की तुलना में बटु (छोटा) ही होता है। बटु वामन ने दान में बली से सब कुछ दान में ले लिया था ताकि‍ उसका अभिमान नष्ट हो । बाद में उसके विकास की यात्रा भी जारी रही।

छठवां अवतार है- परशुराम का। भारत में एक समय ऐसा था जब सभी लोग आपस में केवल लड़ने- भीड़ने का ही काम करते रहते थे जैसे कि‍ अन्य पशुइसलिए परशुराम का स्वभाव भी हथियारों से लैस और आक्रामकता से परिपूर्ण हैं, जिसने कितनी ही बार पृथ्वी को नि:क्षत्रीय किया था। यह आक्रामकता एवं मार- काट मनुष्य जीवन के विकास का अभिन्न अंग रही है। तो यह अवतार भी वैज्ञानिक दृष्टि से बिलकुल सही लगता हैं। आगे विकास होता गया।

सातवां अवतार हैं- दशरथ पुत्र श्रीराम का। राम को मानवीय इतिहास एक महत्वपूर्ण पडाव माना जाता है, क्योंकि‍ राम ने बहुत से नीति‍ मूल्यों की स्थापना में मानवता अपना योगदान दिया है। आज तो रामसेतु और अन्य हजारों प्रमाणों से यह सिद्ध भी हो रहा है कि‍ राम भारत में आज से लगभग 9100 वर्षों पूर्व हो चुके है। अर्थात इसा पूर्व 7100 वर्ष पूर्व। जिसके लाखों प्रमाण भी है। राम ने मानव जीवन के विकास के क्रम को और भी गति‍ दी न केवल भौतिकता से उपर उठकर जीना सिखाया बल्कि मानवीय मूल्यों की स्थापना करते हुए मानव के जीवन विकास को गति दी। जो पूर्णत: वैज्ञानिक धरातल पर सत्य प्रतीत हो रहा है।
 
आठवाँ श्रीकृष्ण का। श्री कृष्‍ण आज से लगभग 5200 वर्षों पूर्व हुआ, जिन्होंने मानवीय मूल्यों की स्थापना के साथ-साथ राजनीतिक दांवपेचों और नैतिकता की शिक्षा दी और दोनों की बीच तालमेल बिठाया।। जिनकी द्वारका आज भी गुजरात (कच्छ) के पास के समुद्र में है। जो मानवीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण पडाव है, जो वि‍कासवाद की भी पुष्टि करता हैं।

नौवाँ अवतार है- भगवान गौतम बुद्ध का। भगवान गौतम बुद्ध ने अहिंसा के माध्यम से संपूर्ण विश्व को शांति‍ का संदेश दिया। वि‍कासवाद में एक और महत्वपूर्ण पडाव है भगवान गौतम बुद्ध। यह वैचारिक विकास केवल भौतिकता के क्षेत्र में नहीं मानवता के इतिहास में भी मायने रखता है।

दसवां अवतार है - कल्‍की अवतार। यह वि‍कासयात्रा के अंतिम पडाव का अवतार है। जो समस्त मानव जीवन को एक-साथ लाएगा और संपूर्ण मानव जाति‍ के लिए कार्य करेगा और विकास की यात्रा को पूर्ण विराम लगाएगा। मनुष्य को उनके जीवन का वास्तविक उदयेश्‍य से परिचय करवाएगा।

डार्वि‍न के वि‍कासवाद को ठीक से पढे, तो उसमें बंदरों से मानव के विकास की जो बात कही है वह कुछ हद तक ठीक है क्योंकि‍ बंदर और और मनुष्य में काफी साम्‍यताएं दिखाई देती है। यदि‍ हम यह माने कि‍ मनुष्य के जन्म से ठीक पहले का यदि‍ कोई जन्म होगा तो वह बंदर का ही हो सकता है। बंदरों की शारीरिक रचना और मनुष्य की शारीरिक रचना में काफी साम्यता पायी जाती है। बौद्धिक विकास और शारीरिक रचना का थोड़ा विकास हो तो बंदर के बाद मनुष्य का शरी उसके लिए उचित लगता हैं। मनुष्य के शरीर की रीढ़ की हड्डी में अभी भी वह निशान मिलता है जहां बंदरों को पूंछ होती है। वि‍कास की इस यात्रा में मनुष्य से पूंछ पीछे छुंट गई।

पुराणों के अनुसार 84 लाख योनियों के बाद मनुष्‍य का जीवन प्राप्‍त होता हैं इसको वैज्ञानिक दृष्टि से जांच कर देखें तो इसमें 21 लक्ष जारज, 21 लक्ष अंडज, 21 लक्ष उद्भीज और 21 लक्ष जलज जीव है, जिसे 'योनियां' कहा गया है। यदि‍ धरती पर जीवशास्‍त्र की दृष्टि से देखें तो पायेंगे कि‍ यह सभी प्रजाति‍यां आज भी उपलब्ध है। कुछ की संख्याओं में कमी आयी होगी। लेकिन उनके जीवाश्म अभी भी जल और मिट्टी में मौजूद हैं। मनुष्‍य प्राणी मां के पेट में जितने दि‍न रहता है, उसे यदि‍ सेकंदों में विभाजित किया गया, तो वह लगभग 84,00,000 ही आता है। यदि हम यह माने की प्रकृति‍ हमें सभी फल, फूल और अन्य जीवों की सेवा इसलिए मिल रही है, क्योंकि‍ हम भी कभी यह सब कुछ रह चुके हो, तभी तो हमें यह सब कुछ प्रकृति‍ ने देखने का मौका दिया है।


भारत की शि‍क्षा नीति‍ और राजभाषा नीति

भारत की शि‍क्षा नीति‍ और राजभाषा नीति
राहुल खटे,
उप प्रबंधक (राजभाषा),
स्टेट बैंक ऑफ मैसूर, हुब्‍बल्‍ली
मोबाइल: 09483081656

जैसा कि‍ यह सभी जानते हैं कि भारत 15 अगस्‍त 1947 को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुआ। सब यही समझते हैं कि‍ हम उसी दि‍न स्‍वतंत्र हुए। लेकि‍न यह एक बहुत बडा भ्रम था। महात्‍मा गांधी ने अंग्रेजों से सामने बि‍ना कि‍सी शर्त के पूर्ण स्‍वतंत्रता की मांग रखी थी। लेकि‍न भारत के ही कुछ स्‍वार्थी लोगों ने अंग्रेजों की राष्‍ट्र वि‍रोधी शर्तों को सशर्त स्‍वीकार कर लि‍या था, जि‍समें एक भाषा नीति‍ भी थी। अंग्रेजों को पता था कि‍ यह देश अपनी भाषा के बल पर आगे और भी प्रगति‍ कर सकता है। इसी को रोकने के लि‍ए अंग्रेजों ने कुछ अंग्रेजी प्रिय भारतीयों के साथ मिलकर भारतीय शि‍क्षा पद्धति में संस्‍कृत को स्‍थान न देने जैसे राष्‍ट्र वि‍रोधी शर्तें भी शामि‍ल की। अब प्रश्‍न यह उठता हैं कि‍ ऐसी स्‍थि‍ति‍ उत्‍पन्‍न क्‍यों हुई? समस्‍या जि‍तनी गंभीर होती है, उसके कारण भी बहुत शोधगम्‍य होते हैं। इसकी शुरूआत भी आजादी के पहले से होती है। मैकाले नामक अंग्रेज के ही वह जहरीले बीज हैं, जो अब फलीभूत हो रहें हैं। दरअसल, अंग्रेजों ने भारत की सामाजि‍क और आर्थिक स्‍थि‍ति‍ का सर्वेक्षण करने के बाद, जो शि‍क्षा नीति‍ भारत को गुलाम बनाये रखने के लि‍ए बनायी थी, वही नीति‍ स्‍वतंत्रता के बाद भी कुछ लोगों द्वारा जारी रखी गई, जि‍सका परि‍णाम हैं कि‍ आज हमारी शि‍क्षा व्‍यवस्‍था रोजगार की गारंटी नहीं देती। शि‍क्षि‍त होने के बाद भी नैति‍कता की कोई गारंटी नहीं है तथा स्‍थि‍ति‍ तो और भी बदतर तब हो जाती है, जब पढे-लि‍खे शि‍क्षा प्राप्‍त लोगों में इन सभी स्‍थि‍ति‍यों के बारे में उदासि‍नता पायी जाती है। उनमें न भारतीय संस्‍कृति‍ के प्रति‍ आदर है और न ही उन्‍हें इसकी परवाह है।

उच्‍च शि‍क्षा प्राप्‍त आधुनि‍क पीढ़ी के मन में भारतीय इतिहास के बारे में गौरव की भावना नहीं है, क्‍योंकि‍ उनके पाठ्यक्रम में हमने वही परोसा ही है, जिसका परि‍णाम यह हुआ कि‍ वे अपने आप को सर्वश्रेष्ठ भारतीय समझने बजाय अपने आप को कुंठित एवं दब-कुचले महसूस करते हैं। इसका कारण उनका पाठ्यक्रम हैं, जिसमें ज्ञान-विज्ञान का संपूर्ण स्रोत पश्चिमी विद्वान है। उन्‍हें भारतीय वैज्ञानिकों का नाम भी पता नहीं होते हैं। उनके लि‍ए भारत तो केवल जमीन का टुकडा मात्र है। ऐसा हो भी क्‍यों ना? अंग्रेजों की खुराफाती दिमाग जाते-जाते भी हमें भेदभाव और अज्ञान का शिक्षा वि‍रासत में दे गए।

कि‍सी ने सही कहा हैं कि‍ कोई भी देश अपने भवि‍ष्‍य का नि‍र्माण नहीं कर सकता, जो अपने अति‍त को भूल जाता है। पश्‍चि‍मी शि‍क्षा हमें डार्विन का वि‍कासवाद सि‍खाती है, लेकि‍न आत्‍मा के अस्‍ति‍त्‍व पर हमें आज भी संदेह है। हमने ग्‍लोबलाइलेशन को तो अपनाया है, लेकि‍न 'वसुधैव कुटुंबकम्' का नारा भुल गये हैं। आर्यभट्ट नामक उपग्रह हमने अंतरिक्ष में स्‍थापि‍त कि‍या हैं, लेकि‍न हमारे बच्चों के पाठ्यक्रम में आर्यभट्ट के बारे में एक भी पाठ नहीं हैं। सुश्रुत हॉस्पि‍टल की नेमप्‍लेट लगी है, लेकि‍न सुश्रुत महाशय कौन है, हमें नहीं पता। जि‍स संस्‍कृत की वैज्ञानि‍कता पर स्‍वयं नासा शोध कर रही है, वह हमारे देश की शि‍क्षा में हो अथवा न हो, इस पर वि‍वाद है। ऐसे कई सारे उदाहरण हैं, जो केवल भ्रम के कारण पैदा किये गये है।

अब सवाल उठता है कि‍ इन सब से निजात कैसे पाया जाए? इसका एक आसान सा उपाय है-शि‍क्षा नीति‍ में भारतीय भाषाओं को उचित सम्मान देना। भाषा के अध्‍ययन को शि‍क्षा की प्राय: सभी वि‍धाओं में गौण माना गया है। अंग्रेजी को ही केवल वि‍ज्ञान की भाषा समझना बहुत बड़ी गलती हैं, अंग्रेजी के अति‍रि‍क्‍त अन्‍य भाषाओं जैसे संस्‍कृत और हिंदी में वि‍ज्ञान की सामग्री उपलब्‍ध है। विज्ञान की दौड में हम यह भूल गये है कि‍ प्रकृति‍ का भी अपना एक वि‍ज्ञान है, जि‍से हमारे मनीषियों/ऋषि‍यों ने जाना था। प्रकृति‍ को पूजा करने के पीछे इसी प्राकृति‍क वि‍ज्ञान को समझना था। भारत के सभी उत्‍सव/त्‍योहार प्रकृति‍ के परि‍वर्तनों से जुड़े है। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांतों पर आज भी शोध की आवश्‍यकता है। इसमें भाषा के अध्‍ययन की वि‍शेष भूमि‍का है। संस्‍कृत, जि‍से कुछ लोग मृतभाषा मानते है, भारत की क्षेत्रीय भाषाओं में उसके आज भी शब्‍द तत्‍सम/तत्‍भव और अपभ्रंश रूप में जीवि‍त है। बायनरी सि‍स्‍टम, जि‍ससे कंप्‍यूटर की प्रणाली चलती है, उसे हमारे पिंगल ऋषि‍ ने सर्वप्रथम दुनि‍या के सामने रखा (वि‍श्‍वास करना भी कठिन है)। आर्यभट्ट के गणि‍त सिद्धांत आज भी गणि‍त वि‍षय का भूषण बने हुए है। डार्विन के वि‍कासवाद को यदि‍ पूर्वजन्‍म और पुनर्जन्म के सिद्धांत के साथ जोड़कर देखा जाए, तो पुनर्जन्म के सि‍द्धांत में भी वि‍कासवाद की छाप दिखाई देती है। 84 लाख योनि‍यों के बाद मनुष्‍य जन्‍म की प्राप्‍ति‍ का सि‍द्धांत इसी वि‍कासवाद की ओर इशारा करता है। अपने पूर्वजों को बंदर मानने से बेहतर है कि‍ हम ऋषि‍यों को हमारा पूर्वज माने, गोत्र प्रणाली हमारे पूर्वजों के नामों की तरफ ही इशारा करती है कि‍ हम उस ऋषि‍ के कुल में उत्‍पन्‍न हुए है। दशावतारों की कहानी भी मनुष्‍य की उत्‍पत्‍ति‍ से लेकर वि‍कासवाद की कडि‍यां ही लगती हैं। मच्‍छ, कच्‍छ, वराह, नृसिंह, परशुराम, वामन, राम तथा कृष्ण/बलराम, बुद्ध का स्‍वरूप जीव सृष्टि के उत्‍पत्ति‍ से लेकर आज तक के वि‍कसि‍त मानव का ही तो वर्णन है। केवल अलंकारि‍कता और चमत्‍कारों को थोडा अलग रखें, तो अवतारों का क्रम मनुष्‍य वि‍कास की अवस्‍थाओं की तरफ संकेत करता है। मच्‍छ अवतार जल से जीवन के प्रारंभ होने के वैज्ञानि‍क तथ्‍य की तरफ इशारा करती है, कच्‍छ अवतार उभयचर जीव जो पूर्णत: जलचर से वि‍कास होकर उभयचर बनने की तरफ संकेत देता है, वराह अवतार पूर्णत: जमीन पर जीने वाले जीवों के वि‍कास की ही कहानी है, नृसिंह प्राणि ‍सदृश मनुष्‍य के विकास का ही एक चरण है, वामन रूप छोटे बच्‍चे के रूप में वि‍कास का ही एक रूप है, परशुराम आक्रामकता और युद्धों को दि‍खाता है जबकि‍ उसके बाद का पुरूषोत्तम राम का रूप पूर्ण मानव का प्रतीक है, जो न केवल पूर्ण शारि‍रि‍क रूप से बल्कि बौद्धि‍क रूप से भी मनुष्‍य के वि‍कास को इंगि‍त करता है। कृष्णावतार पशुपालक (गोपालक) मनुष्‍य का रूप है और उनके भाई बलराम के कंधों पर दि‍खाई देने वाला हल कृषि‍व्‍यवस्था का ही प्रतीक है। यह क्रम मनुष्‍य के वि‍कास के ही वि‍वि‍ध चरण हैं। जि‍से अलंकारि‍कता और अति‍शयोक्‍ति‍युक्‍त वर्णन ने काल्‍पनि‍क बना दि‍या, जो कि वास्‍तवि‍क ही है। भारतीय आयुर्वेंद और योग की महि‍मा से आधुनि‍क वि‍श्‍व भी परि‍चि‍त हो रहा है। वैदि‍क गणि‍त के 16 सूत्रों से कठीण से कठीण गणि‍त को आसानी से सुलझाया जा सकता है।

दरअसल, पाश्‍चात्‍य वि‍द्वानों तथा लेखकों की भारतीय साहि‍त्‍य में घुसपैठ और उनके गहन तथा आलंकारि‍क अर्थ को न समझने के कारण भ्रम की स्‍थि‍ति‍ उत्‍पन्‍न हुई है। वेद, पुराण, उपनि‍षद यह ज्ञान के मूल स्रोत हैं, लेकि‍न व्‍याकरण के अध्‍ययन के बि‍ना ही इसे समझने की असफल कोशि‍श के कारण भ्रम पैदा हुआ है। कल्‍प, नि‍रूक्‍त, छंद, ज्‍योति‍ष, व्‍याकरण की सहायता से ही वैदि‍क साहि‍त्‍य को बेहतर ढंग से समझाा जा सकता है।

अंग्रेजों के आगमन और उनका भारतीय सामाजि‍क व्‍यवस्‍था अत्‍याधिक हस्‍तक्षेप के कारण भारत की सामाजि‍क और अर्थव्‍यवस्‍था के साथ साथ देश की शि‍क्षा व्‍यवस्‍था को जो क्षति‍ पहुंची है, उसको दूर करने के लि‍ए शि‍क्षा व्‍यवस्‍था में ऐसे परि‍वर्तनों की आवश्‍यकता महसूस हो रही है, जि‍से ध्‍यान मे रखकर नई शि‍क्षा नीति‍ की पहल भी हो रही है।

150 वर्षों की गुलामी और उसके बाद अपनाई गई शि‍क्षा व्‍यवस्‍था के ही यह सब परि‍णाम है। 'लूट की भावना' से आये अंग्रेजों के आगमन और जाते-जाते 'फूट की भावना' का बीजारोपण और उससे फलीभूत मानसि‍कता का असर ही तो हम देख रहे हैं। इन सब में अंग्रेजी माध्‍यम का जलसिंचन ने व्‍यवस्‍था के वटवृक्ष को इतना घनीभूत कर दि‍या है कि‍ अब ऐसा लगने लगा है कि‍ 'अब न होगा इस नि‍शा का फिर सवेरा।' किंतु 'प्राचि‍ की मुस्‍कान फिर-फिर भी तो है, स्‍नेह का आव्‍हान फिर-फिर और नीड का नि‍र्माण फिर-फिर भी तो है, जि‍से हमें ही करना होगा।

इस स्‍थि‍ति‍ से उबरने में थोडा और समय लगेगा। समाज के सभी स्‍तरों में इस वि‍षय के प्रति जागरूकता की आवश्‍यकता है, वि‍शेष रूप से शि‍क्षा व्‍यवस्‍था में। इन सबमें भाषा की अहम भूमि‍का है।

प्राय: देखा जाता है कि‍ सरकारी नौकरी में आने के बाद कर्मचारि‍यों को हमारी राजभाषा हिंदी सि‍खाने के प्रयास होते है, जो कुछ हद तक कामयाब भी हैं, लेकि‍न एक बार घड़ा पकने के बाद उसे आकार देना व्‍यर्थ होता है। हमारी पूरी शि‍क्षा व्‍यवस्‍था पहले अंग्रेजीयत का पाठ पढाती है और बाद में हम उन्‍हे हिंदी का पाठ पढाते हैं। इसका एक आसान सा उपाय यह है कि‍ शि‍क्षा व्यवस्‍था में एक ऐसी व्‍यवस्‍था हो, जो सभी समस्याओं का समाधान कर पाए। उच्‍च स्‍तर की शि‍क्षा में हिंदी माध्‍यम से शि‍क्षा ही इसका असरदार उपाय दि‍खाई देता हैं। इससे दोहरा फायदा होने की संभावना है। एक तो पाठ्यक्रमों को यदि‍ हिंदी में उपलब्‍ध कराया गया, तो शि‍क्षा, वैद्यक, कृषि‍, वाणि‍ज्‍य, कंप्‍यूटर, वि‍धि‍, तकनीकी आदि वि‍षय, जो काफी जटिल माने जाते है, आसानी से समझ मे आ सकते हैं, वही दूसरी तरफ इन्‍हें हिंदी माध्‍यम से पढाने के कारण इसमें लगने वाले समय में भी बचत हो सकती है। जैसे-जि‍स पाठ्यक्रम को चार या छ: वर्ष लगतें है उसे दो या चार वर्षों में ही पूरा कि‍या जा सकता है। साथ ही अंग्रेजी को समझने के लगने वाली माथापच्‍ची से भी नि‍जाद मि‍ल जाएगी। केवल देश में कार्य करने और वि‍देश में कार्य करने की इच्‍छा रखने वाले इस प्रकार का वर्गीकरण कि‍या जाए, तो वे वि‍द्यार्थी जो वि‍देशों में अथवा अंग्रेजी में शि‍क्षा प्राप्‍त नहीं करना चाहते हैं, उन्‍हें अंग्रेजी के बोझ से बचाया जा सकता है। जो वि‍द्यार्थी केवल अच्‍छे अवसरों के लि‍ए वि‍देशों में जाते हैं, ऐसे 1 से 5 प्रति‍शत बच्‍चों के लि‍ए उन 95 से 99 प्रति‍शत वि‍द्यार्थीं के सि‍र से अंग्रेजी के भूत का बोझ भी दूर कि‍या सकता है। हमारे देश के ग्रामीण क्षेत्रों के कुछ मेधावी वि‍द्यार्थी तो केवल इसलि‍ए पढाई छोड देते है, क्योंकि वे अंग्रेजी से तंग आ गये होते है। वि‍षय में उनकी रूचि‍ तो होती है, लेकि‍न केवल आकलन न होने के कारण कई बच्चों के पढाई छोड़ने के मामले सामने आते हैं। भारत जैसे कृषि‍ प्रधान देश में यदि‍ कृषि‍शास्‍त्र की पढाई हिंदी में उपलब्‍ध हो, तो उसका फायदा लाखों कि‍सानों के बच्‍चों को होगा। दूसरा उपाय यह भी है-कार्यालयीन हिंदी अथवा प्रयोजनमूलक हिंदी को अनि‍वार्य कि‍या जाना चाहि‍ए, जि‍ससे वि‍द्यार्थी विद्यालय, महावि‍द्यालयीन और वि‍श्‍ववि‍द्यालय स्‍तर पर ही भारत की भाषा नीति‍ से परि‍चि‍त हो जाए। उन्‍हें हिंदी में सरकारी कामकाज में प्रयोग में आनेवाली शब्दावली, वाक्‍यांश, नोटिंग-ड्राफ्टिंग, कंप्‍यूटर पर हिंदी में प्रारूप लि‍खने, -मेल भेजना, सोशल मीडिया पर हिंदी का प्रयोग आदि का अभ्‍यास करवाया गया, तो इससे सरकारी नौकरी प्राप्‍त करते ही हिंदी में कार्य करने में आसानी होगी। इस पर शि‍क्षा वि‍भाग को भी वि‍चार करना चाहि‍ए।

इन सभी बातों पर गौर करें तो राजभाषा नीति‍ के कार्यान्‍वयन की आवश्‍यकता सरकारी कार्यालयों के स्‍थान पर भारत की शि‍क्षा व्‍यवस्‍था में होना परमावश्‍यक है, क्योंकि शि‍क्षा नीति‍ ही वह स्‍थान है, जहां देश के अन्‍य नीति‍यों की नीव रखी जाती है।

जि‍स प्रकार कि‍सी बड़ी इमारत की नीव से ही उसकी मजबूती तय होती है, उसी प्रकार देश की व्‍यवस्‍था की नीव उसकी शि‍क्षा व्‍यवस्‍था ही है। उसे यदि‍ 'निज' अर्थात हमारी स्‍वयं की भाषा में प्रदान कि‍या गया तो नि‍श्‍चि‍त ही सभी क्षेत्रों की उन्‍नति‍ नि‍श्‍चि‍त है। इसीलि‍ए भारतेंदु हरि‍श्‍चंद्र ने कहा है :

'' निज भाषा उन्‍नति‍ अहै, सब उन्‍नत्‍ति‍ को मूल।।
बिन निज भाषा ज्ञान के मि‍टत न हि‍य के शूल ।।''

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(राहुल खटे द्वारा लि‍खा गया मौलि‍क लेख)